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वर्ली कलाकृति

इस विकि का निर्माण विशेष रूप से नवगीत की समस्त जानकारी को एक ही स्थान पर एकत्रित करने के लिये किया गया है।

नवगीत में क्या होना आवश्यक है[]

नवगीत में गीत होना ज़रूरी है। यों तो किसी भी गुनगुनाने योग्य शब्द रचना को गीत कहने से नहीं रोका जा सकता। किसी एक ढांचे में रची गयीं समान पंक्तियो वाली कविता को किसी ताल में लयबद्ध करके गाया जा सकता हो तो वह गीत की श्रेणी में आती है, किन्तु साहित्य के मर्मज्ञों ने गीत और कविता में अन्तर करने वाले कुछ सर्वमान्य मानक तय किये हैं। छन्दबद्ध कोई भी कविता गायी जा सकती है पर उसे गीत नहीं कहा जाता। गीत एक प्राचीन विधा है जिसका हिंदी में व्यापक विकास छायावादी युग में हुआ। गीत में स्थाई और अंतरे होते हैं। स्थाई और अन्तरों में स्पष्ट भिन्नता होनी चाहिये। प्राथमिक पंक्तियां जिन्हें स्थाई कहते हैं, प्रमुख होती है, और हर अन्तरे से उनका स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई देना चाहिये। गीत में लय, गति और ताल होती है। इस तरह के गीत में गीतकार कुछ मौलिक नवीनता ले आये तो वह नवगीत कहलाने लगता है।

नवगीत का विकास[]

हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास में 'नयी कविता' के समानांतर रचे जा रहे नए गीतों की वैधानिक एवं भाषिक संरचना के साथ ही उनके नए तेवर को पारंपरिक गीतों से अलगाते हुए हिन्दी नवगीत के नाम-लक्षण-निरूपक प्रथम ऐतिहासिक संकलन 'गीतांगिनी'(1958) की भूमिका में राजेन्द्र प्रसाद सिंह (1930-2007) ने बतौर संपादक लिखा था : "नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है,जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं । प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है । नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा ।” 

इस उद्घोषणा से गुजरने पर किसी भी विवेकशील साहित्यिक को यह सहज अनुभव होगा कि इसमें किसी प्रवर्तक का पैंतरा नहीं, बल्कि उद्घोषक का उल्लास है । ‘गीतांगिनी’ के संपादकीय में दी गई स्थापनाओं की मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए डॉ॰ रवीन्द्र भ्रमर ने लिखा है --“गीतांगिनी सम्पादक की यह उक्ति आज पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही है । आज तो गीत की परिभाषा ही बदल गई है ।'

‘गीतांगिनी’ के सम्पादकीय के रूप में वस्तुतः नवगीत का घोषणा-पत्र प्रस्तुत करते हुए राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के जिन पाँच विकासशील तत्वों को निरूपित किया है,वे हैं— जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा,व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय । यदि हम हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास पर वस्तुनिष्ठ होकर विचार करें तो स्पष्ट होगा कि ‘नवगीत’ के पूर्व गीतों में दर्शन की प्रचुरता थी- जीवन दर्शन की नहीं; धर्म, नैतिकता और रहस्य की निष्ठा का स्रोत था- व्यावहारिक आत्मनिष्ठा का नहीं; व्यक्तिवादिता थी- व्यक्तित्व-बोध नहीं, प्रणय-शृंगार था,-जीवनानुभव से अविभाज्य प्रीति-तत्व नहीं, तथा सौंदर्य एवं मार्मिकता के प्रदत्त प्रतिमान थे,- प्रेरणा की विविध विषय-वस्तुओं के परिसंचय का सिलसिला नहीं। ‘गीतांगिनी’ में संकलित नवगीतों पर विचारने से हम पाते हैं कि इसके सम्पादकीय में निरूपित पांचों तत्व गीत के स्वभावगत परिवर्तन को रेखांकित कर स्वयंसिद्ध हुए हैं । ये विशेष तत्व, वस्तुतः नयी पीढ़ी के स्वभाव में भी बदलाव ला रहे थे, जो उस पीढ़ी के गीतकारों में उजागर हुए । कालान्तर में ‘गीतांगिनी’ को हिन्दी नवगीत का नाम-लक्षण-निरूपक प्रथम ऐतिहासिक संकलन तथा इसके सम्पादक को नवगीत के नामकर्ता,तत्व-निरूपक एवं तत्पर व्याख्याता और निःस्वार्थ प्रवर्तक के रुप में स्वीकार किया गया । 

उल्लेखनीय है कि महाप्राण निराला के अलावा तद्युगीन अनेक महत्वपूर्ण रचनाकारों के नए गीत  पहली बार 'गीतांगिनी' (1958) में ही बतौर 'नवगीत' प्रकाशित हुए थे. इसलिए महाकवि निराला को हिन्दी नवगीत का प्रवर्तक कहना वस्तुत: उन जैसे महाप्राण विश्वकवि की आड़ लेकर 'गीतंगिनी' के ऐतिहासिक महत्व का शिकार करने जैसा है. प्रमाण के लिए 'गीतांगिनी' में सकलित निराला का गीत द्रष्टव्य है जो वैधानिक एवं भाषिक संरचना की दृष्टि से उनके दूसरे गीतों से भिन्न और विशिष्ट है :     

मानव जहां बैल घोड़ा है,

कैसा तन-मन का जोड़ा है ।

किस साधन का स्वांग रचा यह,

किस बाधा की बनी त्वचा यह ।

देख रहा है विज्ञ आधुनिक,

वन्य भाव का यह कोड़ा है ।     

इस पर से विश्वास उठ गया,

विद्या से जब मैल छुट गया

पक–पक कर ऐसा फूटा है,

जैसे सावन का फोड़ा है । 

-‘निराला’ : (गीतांगिनी, पृ॰ 6)

ज्ञातव्य है कि बतौर सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 'प्रसाद' जी की रचना 'तुमुल कोलाहल कलह में / मैं ह्रदय की बात रे मन !' को हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ गीत स्वीकारते हुए 'गीतांगिनी' को 'हिन्दी के इस सर्वश्रेष्ठ गीत के प्रति' निवेदित किया है.

साठवें दशक के आसपास जब कविता- नई कविता के रूप में विकसित हो रही थी तब गीत- नवगीत के रूप में विकसित हुआ। नई कविता ने तुक और छंद के बंधन तोड़ दिये लेकिन नवगीत इन सबके साथ रहते हुए नवीनता की ओर बढ़ा। निराला ने अपनी एक रचना में इस ओर संकेत करते हुए कहा है- नव गति, नव लय, ताल, छंद नव। यही आगे चलकर नवगीत की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ भी बनीं। इसके साथ साथ नवगीत में नया कथन, नई प्रस्तुति, प्रगतिवादी सोच, नए उपमान, नए प्रतीक, नए बिम्ब, समकालीन समस्याएँ और परिस्थितियाँ प्रस्तुत करते हुए इस विधा को नई दिशा दी गई। यही एक गीत को नवगीत बनाते हैं। आवश्यक नहीं कि एक नवगीत में इन सभी चीज़ों का समावेश हो लेकिन 3-4 होना ज़रूरी है। नवगीत में छंद आवश्यक है लेकिन वह पारंपरिक न हो, नया छंद हो और उसका निर्वाह भी किया गया हो। छंद में बहाव हो लय का सौंदर्य हो, ताकि गीत में माधुर्य बना रहे।

इस दृष्टि से राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पहली काव्यकृति ‘भूमिका’ (1950,भारती भण्डार,इलाहाबाद) की रचनाओं पर गंभीरता से विचारने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस संग्रह के अनेक गीत अवश्य ही ‘नवगीत’ के आरंभिक स्वरूप को पता देने में सक्षम हैं । मनोवस्था के तापमान से जीवन्त इन गीतों में उल्लेखनीय हैं – ‘गा मंगल के गीत सुहागिन,चौमुख दियरा बाल के’ और ‘शरद की स्वर्ण-किरण बिखरी’ । बाद में ये दोनों गीत ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ (द्वैमासिक )में 1949 के ‘शरद’ अंक में छपे और प्रकृति-काव्य-संकलन ‘रूपांबरा’ (सम्पा॰ अज्ञेय) में भी संकलित किए गए । इनके अतिरिक्त - ‘सब सपने टूटे संगिनी,बिजली कड़क उठी’, ‘मेरे स्वर के ये बाल-विहग जा रहे उड़े किस ओर’, ‘सखि, मधु ऋतु भी अब आई’, ‘मधु मंजरियाँ, नवफुलझरियाँ’, ‘यह दीवार कड़ी कितनी है’- आदि गीत विशेष रूप से ध्यातव्य हैं,जिनमें नवगीत को अंकुरित करने की तैयारी है ।

1995 में प्रकाशित, राजेन्द्र प्रसाद सिंह की काव्यकृति ‘मादिनी’ में गीतों की प्रचुरता है उनमें  अधिकांश को 1958 के बाद ‘नवगीत’ के रूप में स्वीकृति मिली । मेरी समझ से प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया पर हिन्दी में सर्वप्रथम राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ही ‘मादिनी’ की भूमिका में विचार किया था । ज्ञातव्य है कि 1954 तक  मुक्तिबोध ने भी इस विषय पर कुछ भी लिखा या प्रकाशित नहीं करवाया था । गीत की रचना-प्रक्रिया समझने में उक्त भूमिका की विचार-शृंखला का अपना महत्व है । ‘मादिनी’ के उन गीतों में, जो ‘50’ से ‘54’ तक रचे गए और वस्तुतः बाद में ‘नवगीत’ के ही अघोषित नमूने माने गए,-कुछ हैं- ‘तनिक उठा ले यह घूंघट-पट/ओ मधुमुखी सयानी’, ‘मेरे रास्ते पर/चल रहे सपने अधूरे/टूट जाने के लिए’ और लोकतत्व से भरे गीतों में कई हैं,-जैसे ‘मूकपहेली’, ‘पावसी’,‘सजला’, ‘तुमने किसकी ओर उठाई/ अंखियां काजलवाली री” (कजली) इत्यादि। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के छह ऋतुओं के गीतों की कई-कई शृंखलाओं के लिए ‘मादिनी’ के नवगीत-बीजों को महत्व दिया जाना चाहिए । उनकी तीसरी कृति है ‘दिग्वधू (1956) जो मुख्य रूप से कविता-संग्रह है, पर उसमें भी कुछ ऐसे गीत हैं जिन्हें कवि की प्रथम घोषित नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ के नए प्रार्थना-गीतों की शृंखला से जोड़ा जा सकता है । यह महत्वपूर्ण है कि बहुत पहले ही प्रथम नवगीत-संकलन के रूप में ‘गीतांगिनी’ की योजना प्रसारित करने और 1958 में उसे संपादित–प्रकाशित करने के पूर्व भी राजेन्द्र प्रसाद सिंह के प्रायः सौ गीत अपनी नई शैली के साथ प्रशस्त और प्रस्तुत हो चुके थे; जिनमें हर तरह से नवगीत की सही और चमत्कारपूर्ण समझ मूर्त हो चुकी थी ।  इसका उदाहरण चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित ‘कविताएं-1956’में संकलित उनका गीत ‘विरजपथ’ द्रष्टव्य है :-

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।

खिलते-मुरझाते किन्तु कभी

तोड़े जाते ये फूल नहीं ।

खुलकर भी चुप रह जाते हैं ये अधर जहां,

अधखुले नयन भी बोल-बोल उठते जैसे;

इस हरियाली की सघन छांह में मन खोया,

अब लाख-लाख पल्लव के प्राण छुऊं कैसे ?

अपनी बरौनियां चुभ जाएं,

पर चुभता कोई शूल नहीं ।

निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर

है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ी;

घर्घर-पुकार उस पार रेल की गूंज रही,

इस पार जगी है उत्सुकता थोड़ी-थोड़ी ।

सुषमा में कोलाहल भर कर

हँसता-रोता यह कूल नहीं ।

इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा

अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो,

मुट्ठी में थामें हो जिस दिल की चिड़िया को

उसको छन-भर इस खुली हवा में छोड़ो तो ।

फिर देखो, कैसे बन जाती है

कौन दिशा अनुकूल नहीं ?

इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।”

1956 में रची, ‘नवयुग’(साप्ताहिक) में छपी और 1957 में संकलित इस गीत रचना में नवगीत के कौन से प्रारम्भिक तत्व नहीं है ? प्रतीकात्मक अर्थसंकेतों में जीवन-दर्शन,आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध,प्रीति-तत्व और परिसंचय, सभी की मनोज्ञतापूर्ण झलक इसमें मिल जाती है ।

सन् 1947 के आसपास हिन्दी गीतकाव्य में नवीन प्रवृतियों का आविर्भाव और गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास प्रारम्भ हो चुका था जिसे उस समय की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’(द्वैमासिक) के ‘शरद अंक’ (1948) में प्रकाशित कुछ गीतों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा लक्षित किया जा सकता है । ‘प्रतीक’ के उस अंक में बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ द्वारा रचित प्रकृति चित्रण से संबंधित छायावादी-रहस्यवादी निकाय का एक दार्शनिक गीत प्रकाशित है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“सरस तुम्हारे वन-उपवन में फूले किंशुक फूल

उनके रंग में रंग लेने दो हमें आज अंग-अंग

प्राण यह होली का रस रंग ।

कंपित पवन, विकंपित दस दिशि, गगनांगन गतिलीन

उन्मन मन तन चरण स्मरणगत नेह-विदेह अनंग

प्राण यह होली का रस रंग ।”

‘प्रतीक’ के इसी अंक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का भी एक ‘शरदगीत’ प्रकाशित है, जिसे कालान्तर में अज्ञेय ने  ‘रूपाम्बरा’ में भी संकलित किया । कुछ पंक्तियाँ देखिए-

“मोह-घटा फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,

अंध स्वप्न की व्यर्थ बाढ़ का घटता जाता जल है ।

अमलिन-सलिला हुई सरी, शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,

छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की ।

अनुभवमयी मानवी-सी यह लगती प्रकृति-परी ।

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी ।”     -   (रूपाम्बरा : सं अज्ञेय)

राजेन्द्र प्रसाद सिंह का यह ‘शरदगीत’ वस्तुतः जीवनदर्शन-परक प्रकृति के रूपांकन और गुणात्मक मानवीय परिवर्तन की वस्तुवादी समझ का प्रमाण है । प्रकृति को साभिप्राय जीवनानुभव में उरेहने का यह गुणांतरित स्वाद ही नया था,फलतः ‘अज्ञेय’ ने इसे बाद में अपने संपादित प्रकृति–काव्य-संकलन ‘रूपाम्बरा’ में भी सम्मिलित किया और कलकत्ता की ‘भारतीय संस्कृति-परिषद’ ने भी ‘सिन्धुभैरव’ राग में संगीत कर्मियों के द्वारा मंच पर प्रस्तुत किया । ‘प्रतीक’ के उस अंक में ही छपे दो दीप-गीतों की कुछ पंक्तियों पर गौर करें-

1.किसने हमें सँजोया;

जिन दीपों की सिहरन लख-लख, लाख-लाख हिय सिहरें,

वे दीपक हम नहीं कि जिन पे मृदुल अंगुलियाँ विहरें

हम वह ज्योतिर्मुक्ता जिसको जग ने नहीं पिरोया ।”

-बालकृष्ण शर्मा “नवीन”

2.  सम्मुख इच्छा बुला रही/ पीछे संयम-स्वर रोकते,

धर्म-कर्म भी दायें-बायें/रुकी देखकर टोकते,

अग-जग की ये चार दिशायेँ/ तम से धुंधली दिखती,

चतुर्मुखी आलोक जला ले/ स्नेह सत्य का  ढाल के ।

गा मंगल के गीत, सुहागिन/ चौमुख दियरा बाल के ।”

-    राजेन्द्र प्रसाद सिंह

उपर्युक्त दोनों गीतों की तुलनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए हिन्दी नवगीत के अग्रगामी रचनाकार एवं समीक्षक श्री रामनरेश पाठक ने लिखा है :-

“बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की इन पंक्तियों में जहाँ उपेक्षित जीवन की निराशा को आध्यात्मिक गौरव से मंडित करते करते हुए भी बिसुरा गया है, वहीँ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दीप-गीत में नयी पीढ़ी की आशा-आकांक्षा का हौसला-भरा मंगल नर्तन है ।” ‘दीपावली’ शीर्षक से प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के इस गीत को ‘प्रथम नवगीत-बीज’ मानते हुए उन्होंने आगे लिखा है,- “जिसके मन में नवीन जी की पीढ़ी के नरेन्द्र शर्मा का गीत गूँजता हो-

“चौमुख दियना बाल धरूँगी चौबारे पर आज,

जाने कौन दिशा से आवें मेरे राजकुमार ?”

- उन्हें समझना होगा कि अपने ही शब्दों में ‘क्षयिष्णु रोमान’ के कवि नरेन्द्र शर्मा ने ‘प्रवासी के गीत’ की इस रचना में लोक-प्रचलित बिम्ब ‘चौमुख दियना’ को तो ले लिया है मगर काम उससे भावुकता का ही लिया है ।नरेन्द्र शर्मा की सीमा को पीछे छोड़कर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने उस दीपक के चारों दिशा-मुखों से जुड़े लोकधर्मी प्रतीकार्थों को उजागर करने का काम किया है और उस बिम्ब को जीवनदर्शन-परक युक्तिसंगति देकर,तब की युवा मानसिकता का बहुकोणी आवेग यों व्यक्त किया है”-

“दीप-दीप भावों के झिलमिल/और शिखायें प्रीति की,

गति-मति के पथ पर चलना है/ज्योति लिए नवरीति की,

यह प्रकाश का पर्व अमर हो/तम के दुर्गम देश में

चमकी मिट्टी की उजियाली/नभ का कुहरा टाल के ।”

‘गीतांगिनी’ (1958) के प्रकाशन से पूर्व रचित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के जिन गीतों में गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास परिलक्षित होता है, उनमें कुछ तो ‘मादिनी’(55) में संकलित हैं तथा कुछ ‘दिग्वधू (56) में । ‘मादिनी’ में संकलित ‘मधुमुखी’ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं जिसे कई आलोचकों ने ‘औद्योगिक वातावरण में नयी मानवीयता की संवेदना’ उरेहने के लिए रेखांकित किया है-

“उसी विभा में धुलने को/सिन्दूर क्षीर बन जाता,

कच्चा लोहा पिघल-पिघल कर/तरल आग बन आता ।

×             ×            ×

बिम्बित करने को/उस छवि का हास ही

सागर बन लहराता/है इतिहास ही ।”

इसी प्रकार सन 1956 में प्रकाशित कवि की तीसरी काव्य कृति “दिग्वधू” की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी तत्कालीन गीत की रचनाधर्मिता में परिवर्तन की सूचना देती हैं  –

“फिर मैं मोल चुका दूँ ग्रह-तारों के,

नद-निर्झर के,-- पर्वत, सागर, वन के ।

सन् 1962 में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रथम घोषित स्वतंत्र नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ में इसी शीर्षक से संकलित जो मुख्य रचना है, वह भी जनवरी,1956 में ही कवि के वक्तव्य के साथ ‘अलका’ (मासिक) में प्रकाशित हो चुकी थी; जिसे रामनरेश पाठक ने गीत-तत्व के सांगोपांग और सप्राण परिवर्तन के प्रमाण के रूप में रेखांकित किया है । चन्द्रदेव सिंह द्वारा सम्पादित ‘कवितायें-57’ में संकलित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के गीत ‘विरजपथ’ से जाहिर होता है कि “नवगीत जिस पीढ़ी के हाथों निर्मित होने के उपक्रम में था, वह थी आज़ादी के बाद की पहली नौजवान पीढ़ी, जो गाँव के नैसर्गिक और अर्जित संस्कारों से हिम्मत और हौसला ही नहीं,मानवीयता की अटूट पहचान लेकर छोटे-बड़े शहरों में आई और आज़ाद देश की नयी संभावनाओं से अपनी परिवर्तनकारी महत्वाकांक्षाओं को जोड़कर संघर्ष की धूप-धूल से लड़ती हुई जीने लगी । स्वभावतः और रहन-सहन के बदलाव की अनवरत लड़ाई में, कभी उस पीढ़ी का सदस्य शहरी एकांत में ग्रामीण नागर मानस का साक्षात्कार करता रहा-”

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं

खिलते मुरझाते किन्तु कभी

तोड़े जाते ये फूल नहीं ।”

इस गीत की अगली पंक्तियाँ में उन छद्मपरिवर्तन-कामियों की खबर ली गई है जो एक ओर तो परिवर्तन हेतु पहलकदमी का नाटक करते हैं पर दूसरी ओर अपने वर्गहित में स्वार्थ-साधन जुटाने से बाज नहीं आते-

“निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर

है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ीॱॱॱ।”

इसके साथ ही इस गीत में आत्मविश्वास से पूर्ण और अटूट हौसले से भरी पूरी पीढ़ी की ओर से सोच और सूझ की ताकत भी व्यक्त हुई है-

“इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा

अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो;

मुट्ठी में बांधे हो जिस दिल की चिड़िया को,

उसको छन भर इस खुली हवा में छोड़ो तो,

फिर देखो, कैसे बन जाती है

कौन दिशा अनुकूल नहीं ।”

सन् 1947 से 1957 के बीच रचित गीतों की रचनाधर्मिता पर विचारने से स्पष्ट होता है कि इस अघोषित नवगीत दशक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के साथ ही जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपने गीतों में रचना की प्रचलित परम्परा से हटकर गीत रचने का प्रयास किया उनमें महाप्राण निराला के अलावा शम्भुनाथ सिंह,वीरेंद्र मिश्र,रामदरश मिश्र रामनरेश पाठक, रवीद्र भ्रमर,नईम आदि उल्लेखनीय हैं।

वस्तुतः गीत रचना के नवीकरण का दशक-व्यापी उपक्रम जो 1947-48 से प्रारम्भ होकर छठे दशक के अन्त तक चलता रहा, वह गीत रचना की नयी प्रक्रिया की कुक्षि में नवगीत के आकार लेने का ही दीर्घ उपक्रम था । अतः यही कहना जायज़ है कि ‘नयी कविता’ के स्वरूप ग्रहण करने की तैयारी के बहुत पहले ही तथा ‘तारसप्तक’(1943) की समीक्षाएं आने के कुछ ही बाद, नवगीत की तैयारी के आरम्भिक नमूने रचित और प्रकाशित किये जाने लगे । इस क्रम में विभिन्न रचनाकारों की स्वतंत्र गीत-कृतियों के अतिरिक्त जिन संकलनों एवं पत्रिकाओं में नवगीत की तैयारी के गीत संकलित हुए उनमें- ‘कवितायें-54,-55 एवं-57”,'रूपाम्बरा' (सं॰ अज्ञेय) तथा ‘लहर’,‘नई धारा’ एवं ‘प्रतीक’ आदि के कवितांकों का अपना महत्व है ।   

'गीतांगिनी' के प्रकाशन के बाद राजेन्द्र प्रसाद सिंह के कई स्वतन्त्र नवगीत संग्रह प्रकाशित हुए. इनमें 'आओ खुली बयार', 'रात आँख मूँद कर जगी','भरी सड़क पर' के अलावा 'गज़र आधी रात का' तथा 'लाल नील धारा' सदृश जनगीत संग्रह अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. उदाहरण के लिए 'आओ खुली बयार' में संगृहीत एक नवगीत द्रष्टव्य है :

ढँक लो और मुझे तुम,

अपनी फूलों सी पलकों से, ढँक लो ।

अनदिख आँसू में दर्पण का,

रंगों की परिभाषा,

मोह अकिंचन मणि-स्वप्नों का

मैं गन्धों की भाषा,

ढँक लो और मुझे तुम

अपने अंकुरवत अधरों से ढँक लो ।

रख लो और मुझे तुम,

अपने सीपी-से अन्तर में रख लो ।

अनबुझ प्यास अथिर पारद की,

मैं ही मृगजल लोभन,

कदली-वन; कपूर का पहरू

मेघों का मधु शोभन ।

रख लो और मुझे तुम

अपने अनफूटे निर्झर में, रख लो ।

सुप्रसिद्ध साम्यवादी मनोवैज्ञानिक एरिक फ्राम ने अपनी पुस्तक “आर्ट ऑफ लव” में प्रेम के संदर्भ में विचार करते हुए जिस कोमलता (टेंडरनेस) एवं प्रेमी युगल द्वारा परस्पर सुरक्षा देने की भावना को महत्वपूर्ण माना है वही- जैसे इस प्रतिनिधि प्रेम-परक नवगीत का थीम है । गीत की प्रथम पंक्ति से ही स्पष्ट है कि अनुभव की किस गहराई तथा कोमलता से यह रचना उदभूत हुई है । उपर्युक्त अंश पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि पहले बंद  में यदि अकथ्य का कथन व्यक्त हुआ है तो दूसरे में विपरीत की एकता को अभिव्यक्ति दी गई है । दूसरे बंद की अंतिम पंक्ति में कवि द्वारा प्रयुक्त ‘मेघों का मधु’ स्वाति जल के लिए दूसरा नाम है जो उसकी निजी भाषागत सुरुचि का परिचायक है । अन्तिम बंद में ज्ञात उपकरणों के माध्यम से नए अज्ञात संबंधों की सृष्टि कर नवार्थों का स्फुरण (nuances) द्रष्टव्य है-

“ सह लो और मुझे तुम,

अपने पावक-से प्राणों पर सह लो ।”

यहाँ पावक-से प्राणों पर सहने की बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि आगे का ‘मैं’ ‘रुई का सागर’ है :

“मैं हो गया रुई का सागर,

कड़वा धुआँ रसों का,

कुहरे का मक्खन अनजाना,

गीत अचेत नसों का,

सह लो और मुझे तुम,

अपने मंगल वरदानों पर सह लो ।”

-(आओ खुली बयार पृ॰सं॰ 55)

इस भावबोध से नितांत भिन्न एवं विपरीत राजेन्द्र प्रसाद सिंह रचित एक जनगीत से गुजरना दिलचस्प होगा जिसमें कीर्तन की लोकधुन में सामंती व्यवस्था का नरक भोगने को अभिशप्त खेत मजदूरों की पीड़ा को अभिव्यक्ति मिली है :

भैया, कूदे उछल कुदाल / हँसिया बल खाए !

भोर हुई, चिड़यन संग जागे/ खैनी दाब, ढोर संग लागे,

आँगन लीप, मेहरिया ठनकी/ दे न उधार बनियवां सनकी,

कारज-अरज जिमदार न माने / लठियल अमला बिरद बखाने ।

X         x         x             x

भैया, गुजरे दो-दो साल / कुर्ता सिलवाये !                     (गज़र आधी रात का,पृ.32)

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 2012 में भारत सरकार द्वारा आयोजित एक सामान्य रात्रिभोज में प्रति अतिथि लगभग 7700 रुपए का खर्च आया था, जबकि वर्तमान नियम के तहत जिन लोगों की रोज़ाना आमदनी 28 रुपए से ऊपर है, वे गरीबी रेखा के अंतर्गत नहीं आते। इस तथ्य के मद्देनज़र राजेन्द्र प्रसाद सिंह रचित एक जनगीत उल्लेखनीय है,जिसमें उद्बोधनात्मक शैली में मौजूदा समाजार्थिक विसंगति और विडम्बना को उभारा गया है :

कस्बा-कस्बा गाता चल ओ साथी / टोले-गाँव जगाता चल ओ साथी

रात रहे जो भूखे  उनकी रोटी / कैसे छिनी बताता चल ओ साथी

सत्तू औ’ गुड़ जिनको नहीं कलेवा / लंच–डिनर समझाता चल ओ साथी । (लाल नील धारा,पृ.14)

वस्तुत: हिन्दी जनगीत (जिसे राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपनी पत्रिका 'आइना' में 'जनबोधी नवगीत' कहा था) 'नवगीत' का ही समयानुकूल विकसित रूप है जिसने गीतात्मक रचना को प्रासंगिक बनाये रखा है और राजेन्द्र प्रसाद सिंह,रमेश रंजक,गोरख पाण्डेय जैसे तमाम श्रेष्ठ जनगीतकारों ने प्राय:अपने जनगीतों में हार्दिकता को धता बताकर नारेबाजी को प्रश्रय नहीं दिया है.

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